नए मोड़ पर गठबंधन राजनीति
राष्ट्रपति चुनाव ने प्रमुख राजनीतिक गठबंधनों के बीच की विभाजन रेखा को धंुधला कर दिया है और मौजूदा गठबंधनों की एकजुटता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। हालांकि संघीय स्तर पर 1996 से जो राजनीतिक समीकरण बनने शुरू हुए उसे अलंकारिक भाव से विचारधारा की मृत्यु कहा जा सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति चुनावों में जो विचित्र समीकरण बन कर उभरे हैं उन्होंने हमें यह पुष्टि करने को मजबूर कर दिया है कि विचारधारा का दुखद निधन हो गया है। पिछले एक पखवाड़े से राष्ट्रपति चुनावों में जो विचित्र दृश्य सामने आए हैं उन पर एक नजर डालते हैं। संप्रग उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के समर्थन में बाल ठाकरे की आवाज गूंजती है और वह शाही अंदाज में सिंहासन के लिए उनका अनुमोदन करते हैं। बाल ठाकरे का दल शिवसेना राजग का घटक है और क्षेत्रीय व पंथिक राजनीति के कारण दशकों से कांग्रेस का धुर विरोधी रहा है। पीए संगमा राकांपा के नेता हैं और प्रणब मुखर्जी को टक्कर देने के लिए उन्होंने पार्टी से नाता तोड़ लिया है। जदयू और शिवसेना को छोड़कर शेष राजग ने संगमा का समर्थन किया है। पीए संगमा की बेटी अगाथा संगमा जो संप्रग सरकार में मंत्री हैं, ने अपने पिता की उम्मीदवारी का विरोध नहीं किया। वाम मोर्चा निराशाजनक रूप से विभाजित नजर आया। इसके दो घटकों ने संप्रग उम्मीदवार के समर्थन में मतदान किया और अन्य दो ने मतदान से गैरहाजिर रहना मुनासिब समझा। एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम जदयू के रवैये से देखने को मिला। राजग के प्रमुख घटक जदयू ने गठबंधन में शामिल रहते हुए प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया। संप्रग के प्रमुख दल तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनने में गैर-संप्रग घटकों से घालमेल की कोशिशों के बाद अंतत: प्रणब मुखर्जी के पक्ष में मतदान कर दिया। इससे अधिक चौंकाने वाले फैसले नहीं हो सकते थे। राष्ट्रपति का चुनाव कोई छोटी घटना नहीं है। अगर शिवसेना और जनता दल (यू) राजग के अन्य घटकों से अलग राह पकड़ सकते हैं तो अब तक जिसे राजग के नाम से संबोधित किया जाता है वह बस नाम का गठबंधन रह गया है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी समान रूप से पहेली बुझाते रहे। उत्तर प्रदेश में कट्टर विरोधी होने के बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में दोनों दलों ने संप्रग के प्रति अपनी वफादारी दिखाई है। इस घटनाक्रम से पता चलता है कि दो प्रमुख गठबंधन राष्ट्रपति चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी इतने नाजुक निकले कि अपने कुनबे को स्पष्ट रूप से एकजुट नहीं रख सके। ममता बनर्जी के साथ आ जाने के बाद संप्रग यह दावा कर सकता है कि वह एकजुट है, लेकिन कोई भी यह समझ सकता है कि इसमें पूरी सच्चाई नहीं है। अगर इन घटनाओं को 2014 के चुनाव पर लागू किया जाए तो नजर आता है कि अगले लोकसभा चुनाव में लेशमात्र स्थिरता भी कठिन होगी, जिससे दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दल और भी कमजोर हो जाएंगे। इसलिए इससे पहले कि देर हो जाए, गठबंधन की एकजुटता को कायम रखने के उपाय तलाशने होंगे। इसके लिए कुछ कानूनी प्रावधान भी करने पड़ेंगे, जैसे दलबदल विरोधी कानून में संशोधन। इस संबंध में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने राजनीतिक दलबदल की समस्या का विश्लेषण किया और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव सामने रखे। दलबदल विरोधी कानून जो 1986 में लागू हुआ और 2004 में इसमें संशोधन किया गया, की पड़ताल के बाद आयोग ने कहा कि राजनीतिक दलों से व्यक्तियों के दलबदल को रोकना ही पर्याप्त नहीं है। शुरू में दलबदल विरोध कानून में सांसदों और विधायकों के खुदरा व्यापार पर रोक लगाई गई थी, किंतु पार्टियों के बंटवारे पर नहीं, बशर्ते अलग होने वाले घटक के पास एक-तिहाई संख्या बल हो। इस प्रावधान से दलबदल पर कारगर रोक नहीं लग पाई, क्योंकि विधायिका में अतिरिक्त समर्थन की इच्छुक प्रत्येक पार्टी ने विरोधी दलों में सेंध लगानी शुरू कर दी और थोक में दलबदल होने लगा। संसद ने 91वें संशोधन के माध्यम से इस छिद्र को भरने की कोशिश की। संशोधन ने पार्टी के विभाजन पर प्रतिबंध लगाया और ऐसा करने वालों की मंत्री पद या समकक्ष राजनीतिक पदों पर तैनाती पर रोक लगा दी। हालांकि अब नए हालात के मुताबिक कानून में संशोधन की जरूरत महसूस की जा रही है ताकि राजनीतिक दलों के गठबंधन बदलने पर रोक लगाई जा सके। चूंकि देश गठबंधन युग में है, इसलिए स्थिर सरकार के गठन के लिए गठबंधन की एकजुटता कायम रखने की आवश्यकता है। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार, जब पार्टियां गठबंधन धर्म निभाने से इन्कार कर देती हैं तो गठबंधन सरकार की आचारनीति कमजोर पड़ती है। अगर राजनीतिक दल अवसरवाद से प्रेरित होकर सत्ता हासिल करने के लिए समान न्यूनतम कार्यक्रम को तिलांजलि दे देते हैं और बीच में ही गठबंधन से किनारा कर लेते हैं तो यह गठबंधन सरकार को मुसीबत में डालना होगा। आयोग का कहना है कि गठबंधन से अवसरवादी किनाराकशी को कानूनन प्रतिबंधित करना चाहिए। इस प्रावधान को दलबदल विरोधी कानून में संशोधन के माध्यम से लागू किया जा सकता है। यह प्रस्ताव दलबदल विरोधी कानून को और आगे ले जाता है, क्योंकि यह किसी दल द्वारा गठबंधन बदलने की स्थिति में सरकार की अस्थिरता की समस्या का समाधान करता है। अगर कोई दल गठबंधन को बीच में छोड़े तो उसके सदस्यों को दोबारा जनादेश हासिल करना चाहिए। राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक दलों के विचित्र व्यवहार से प्रमुख गठबंधनों की एकजुटता खतरे में पड़ गई है। ऐसे में ये सुझाव विचार करने लायक हैं। अगर आज यह कानून लागू होता तो शिवसेना या जनता दल (यू) के लिए राजग को छोड़कर संप्रग के उम्मीदवार को समर्थन देना संभव न होता और न ही ममता बनर्जी सरकार के भविष्य पर तलवार लटकाने में कामयाब हो पातीं। इस कानून में तमाम राजनीतिक गठबंधनों के लिए न्यूनतम पांच वर्ष की अवधि रखी जानी चाहिए। इस प्रकार गठबंधन युग में भी सरकारों की स्थिरता बरकरार रखी जा सकती है। इस आयोग की रिपोर्ट पर इसलिए भी तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि राजतंत्र लगातार विखंडित हो रहा है और राष्ट्रीय दलों का तेजी से Oास हो रहा है। अगर लोग अधिक से अधिक दलों को चुनेंगे तो गठबंधनों में उछलकूद सामान्य मानदंड बन जाएगी, जिससे सरकार चलाने में हमेशा परेशानी खड़ी होती रहेगी इस प्रकार गठबंधन की एकजुटता को सुरक्षित रखना समय की आवश्यकता है। इससे दलदबल विरोधी कानून में सुधार होने के साथ-साथ गठबंधनों में कूद-फांद की नई समस्या से भी छुटकारा मिलेगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
राष्ट्रपति चुनाव ने प्रमुख राजनीतिक गठबंधनों के बीच की विभाजन रेखा को धंुधला कर दिया है और मौजूदा गठबंधनों की एकजुटता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। हालांकि संघीय स्तर पर 1996 से जो राजनीतिक समीकरण बनने शुरू हुए उसे अलंकारिक भाव से विचारधारा की मृत्यु कहा जा सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति चुनावों में जो विचित्र समीकरण बन कर उभरे हैं उन्होंने हमें यह पुष्टि करने को मजबूर कर दिया है कि विचारधारा का दुखद निधन हो गया है। पिछले एक पखवाड़े से राष्ट्रपति चुनावों में जो विचित्र दृश्य सामने आए हैं उन पर एक नजर डालते हैं। संप्रग उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के समर्थन में बाल ठाकरे की आवाज गूंजती है और वह शाही अंदाज में सिंहासन के लिए उनका अनुमोदन करते हैं। बाल ठाकरे का दल शिवसेना राजग का घटक है और क्षेत्रीय व पंथिक राजनीति के कारण दशकों से कांग्रेस का धुर विरोधी रहा है। पीए संगमा राकांपा के नेता हैं और प्रणब मुखर्जी को टक्कर देने के लिए उन्होंने पार्टी से नाता तोड़ लिया है। जदयू और शिवसेना को छोड़कर शेष राजग ने संगमा का समर्थन किया है। पीए संगमा की बेटी अगाथा संगमा जो संप्रग सरकार में मंत्री हैं, ने अपने पिता की उम्मीदवारी का विरोध नहीं किया। वाम मोर्चा निराशाजनक रूप से विभाजित नजर आया। इसके दो घटकों ने संप्रग उम्मीदवार के समर्थन में मतदान किया और अन्य दो ने मतदान से गैरहाजिर रहना मुनासिब समझा। एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम जदयू के रवैये से देखने को मिला। राजग के प्रमुख घटक जदयू ने गठबंधन में शामिल रहते हुए प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया। संप्रग के प्रमुख दल तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनने में गैर-संप्रग घटकों से घालमेल की कोशिशों के बाद अंतत: प्रणब मुखर्जी के पक्ष में मतदान कर दिया। इससे अधिक चौंकाने वाले फैसले नहीं हो सकते थे। राष्ट्रपति का चुनाव कोई छोटी घटना नहीं है। अगर शिवसेना और जनता दल (यू) राजग के अन्य घटकों से अलग राह पकड़ सकते हैं तो अब तक जिसे राजग के नाम से संबोधित किया जाता है वह बस नाम का गठबंधन रह गया है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी समान रूप से पहेली बुझाते रहे। उत्तर प्रदेश में कट्टर विरोधी होने के बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में दोनों दलों ने संप्रग के प्रति अपनी वफादारी दिखाई है। इस घटनाक्रम से पता चलता है कि दो प्रमुख गठबंधन राष्ट्रपति चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी इतने नाजुक निकले कि अपने कुनबे को स्पष्ट रूप से एकजुट नहीं रख सके। ममता बनर्जी के साथ आ जाने के बाद संप्रग यह दावा कर सकता है कि वह एकजुट है, लेकिन कोई भी यह समझ सकता है कि इसमें पूरी सच्चाई नहीं है। अगर इन घटनाओं को 2014 के चुनाव पर लागू किया जाए तो नजर आता है कि अगले लोकसभा चुनाव में लेशमात्र स्थिरता भी कठिन होगी, जिससे दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दल और भी कमजोर हो जाएंगे। इसलिए इससे पहले कि देर हो जाए, गठबंधन की एकजुटता को कायम रखने के उपाय तलाशने होंगे। इसके लिए कुछ कानूनी प्रावधान भी करने पड़ेंगे, जैसे दलबदल विरोधी कानून में संशोधन। इस संबंध में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने राजनीतिक दलबदल की समस्या का विश्लेषण किया और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव सामने रखे। दलबदल विरोधी कानून जो 1986 में लागू हुआ और 2004 में इसमें संशोधन किया गया, की पड़ताल के बाद आयोग ने कहा कि राजनीतिक दलों से व्यक्तियों के दलबदल को रोकना ही पर्याप्त नहीं है। शुरू में दलबदल विरोध कानून में सांसदों और विधायकों के खुदरा व्यापार पर रोक लगाई गई थी, किंतु पार्टियों के बंटवारे पर नहीं, बशर्ते अलग होने वाले घटक के पास एक-तिहाई संख्या बल हो। इस प्रावधान से दलबदल पर कारगर रोक नहीं लग पाई, क्योंकि विधायिका में अतिरिक्त समर्थन की इच्छुक प्रत्येक पार्टी ने विरोधी दलों में सेंध लगानी शुरू कर दी और थोक में दलबदल होने लगा। संसद ने 91वें संशोधन के माध्यम से इस छिद्र को भरने की कोशिश की। संशोधन ने पार्टी के विभाजन पर प्रतिबंध लगाया और ऐसा करने वालों की मंत्री पद या समकक्ष राजनीतिक पदों पर तैनाती पर रोक लगा दी। हालांकि अब नए हालात के मुताबिक कानून में संशोधन की जरूरत महसूस की जा रही है ताकि राजनीतिक दलों के गठबंधन बदलने पर रोक लगाई जा सके। चूंकि देश गठबंधन युग में है, इसलिए स्थिर सरकार के गठन के लिए गठबंधन की एकजुटता कायम रखने की आवश्यकता है। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार, जब पार्टियां गठबंधन धर्म निभाने से इन्कार कर देती हैं तो गठबंधन सरकार की आचारनीति कमजोर पड़ती है। अगर राजनीतिक दल अवसरवाद से प्रेरित होकर सत्ता हासिल करने के लिए समान न्यूनतम कार्यक्रम को तिलांजलि दे देते हैं और बीच में ही गठबंधन से किनारा कर लेते हैं तो यह गठबंधन सरकार को मुसीबत में डालना होगा। आयोग का कहना है कि गठबंधन से अवसरवादी किनाराकशी को कानूनन प्रतिबंधित करना चाहिए। इस प्रावधान को दलबदल विरोधी कानून में संशोधन के माध्यम से लागू किया जा सकता है। यह प्रस्ताव दलबदल विरोधी कानून को और आगे ले जाता है, क्योंकि यह किसी दल द्वारा गठबंधन बदलने की स्थिति में सरकार की अस्थिरता की समस्या का समाधान करता है। अगर कोई दल गठबंधन को बीच में छोड़े तो उसके सदस्यों को दोबारा जनादेश हासिल करना चाहिए। राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक दलों के विचित्र व्यवहार से प्रमुख गठबंधनों की एकजुटता खतरे में पड़ गई है। ऐसे में ये सुझाव विचार करने लायक हैं। अगर आज यह कानून लागू होता तो शिवसेना या जनता दल (यू) के लिए राजग को छोड़कर संप्रग के उम्मीदवार को समर्थन देना संभव न होता और न ही ममता बनर्जी सरकार के भविष्य पर तलवार लटकाने में कामयाब हो पातीं। इस कानून में तमाम राजनीतिक गठबंधनों के लिए न्यूनतम पांच वर्ष की अवधि रखी जानी चाहिए। इस प्रकार गठबंधन युग में भी सरकारों की स्थिरता बरकरार रखी जा सकती है। इस आयोग की रिपोर्ट पर इसलिए भी तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि राजतंत्र लगातार विखंडित हो रहा है और राष्ट्रीय दलों का तेजी से Oास हो रहा है। अगर लोग अधिक से अधिक दलों को चुनेंगे तो गठबंधनों में उछलकूद सामान्य मानदंड बन जाएगी, जिससे सरकार चलाने में हमेशा परेशानी खड़ी होती रहेगी इस प्रकार गठबंधन की एकजुटता को सुरक्षित रखना समय की आवश्यकता है। इससे दलदबल विरोधी कानून में सुधार होने के साथ-साथ गठबंधनों में कूद-फांद की नई समस्या से भी छुटकारा मिलेगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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