कांग्रेस कोई अड़ंगा नहीं
केंद्र सरकार को लकवा क्यों मार गया है? जो सरकार अपने पहले पांच वर्षों में एक के बाद एक सफलता के नए प्रतिमान कायम कर रही थी, उसे उसकी दूसरी पाली में क्या हो गया है? वह जड़-भरत क्यों बन गई है? प्रणब मुखर्जी की प्रचंड विजय दिल बहलाने के लिए अच्छी खबर है, लेकिन कांग्रेस अब कितनी लोकप्रिय रह गई है, इसे कांग्रेसियों से ज्यादा कौन जानता है? पांच राज्यों में हुए पिछले चुनाव और आंध्र के नतीजे कौन-सा संदेश दे रहे हैं? इन चुनावों ने कांग्रेस के कुलदीपक को भी लगभग बुझा दिया है। अब तो कांग्रेस के पास तुरूप का एक ही पत्ता रह गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांग लिया जाए और उनकी जगह किसी नए नेता को प्रधानमंत्री पद पर बिठा दिया जाए। यदि इस पद पर राहुल गांधी बैठ जाएं तो क्या वे सरकार में जान फूंक सकते हैं? यदि फूंकदें तो सचमुच चमत्कार हो जाए, लेकिन पहला प्रश्न यह है कि वे अभी तक किसी भी सरकारी जिम्मेदारी से बचते क्यों रहे? क्या उनके मन में यह गणित रहा कि वे तो इस दुकान के भावी मालिक हैं? वे किसी के मातहत क्यों रहें? यदि वे बनते तो क्या बनते? राज्यमंत्री या मंत्री बनते? ज्योतिरादित्य सिंधिया या जयराम रमेश की तरह। उन्हें प्रधानमंत्री की सरपरस्ती स्वीकार करनी ही पड़ती! क्या युवराज के लिए यह हतक नहीं होती? ये बात दूसरी है कि मनमोहन सिंहजी ऐसे विलक्षण प्रधानमंत्री हैं कि वे अपनी कुर्सी से दो इंच ऊपर ही बैठते हैं। कुर्सी का गुरूर उन्हें रत्तीभर भी नहीं है। वे किसी का अपमान नहीं कर सकते। इस तथ्य के बावजूद यदि राहुल मंत्री नहीं बने तो क्या यह माना जाए कि वे अपनी योग्यता को कसौटी पर चढ़ाने से अब तक डरते रहे? यदि ऐसा है तो उनकी योग्यता दूसरे ढंग से कसौटी पर चढ़ गई है। बिहार और यूपी के चुनावों ने राहुल गांधी को पूरी तरह से नाप दिया है। कांग्रेस महासचिव और कांग्रेस के सर्वप्रमुख प्रचारक नेता के तौर पर देश ने उनका जितना मूल्यांकन किया, उतना कठोर मूल्यांकन वह उनके मंत्री-पद का नहीं करती। यदि वे मंत्री होते तो 60-70 में से एक होते, लेकिन अभी तो वे राहुल गांधी थे और राहुल गांधी देश में बस एक ही हैं। ऐसे में मनमोहन सिंह को उखाड़कर राहुल को रोपना कौन-सा गुल खिलाएगा, मैं नहीं जानता। डॉ. मनमोहन सिंह का शिष्ट और अनाक्रामक व्यक्तित्व इतनी सहानुभूति पैदा करेगा कि उनकी सरकार का लकवाग्रस्त होना भी देश की आंखों से ओझल हो जाएगा।
इसका मतलब यह नहीं है कि इस सरकार की दुरवस्था के लिए मनमोहन सिंह दोषी नहीं हैं। कुछ विश्लेषकों ने सारा दोष सोनिया गांधी के मत्थे मढ़ दिया है। उनका तर्क है कि शक्ति का असली केंद्र पार्टी में है, सरकार तो उसकी कठपुतली भर है। जैसा कभी सोवियत व्यवस्था में होता था, आजकल भारत में हो रहा है। भारत में संसदीय व्यवस्था लचर-पचर है। संसदीय पार्टी के मुकाबले कांग्रेस की कार्यसमिति अधिक ताकतवर है और प्रधानमंत्री के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष शक्ति की असली केंद्र्र हैं। ऊपरी तौर पर यह बात सही लगती है, लेकिन वास्तविकता क्या है? प्रधानमंत्री का पद और कांग्रेस अध्यक्ष का पद कई वर्षों बाद दो अलग-अलग व्यक्तियों के पास आया है। नरसिंह राव जैसे गैर-पुश्तैनी कांग्रेस अध्यक्ष ने भी प्रधानमंत्री बनने पर भी अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ा। इंदिरा गांधी के जमाने में कई कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन उनकी हैसियत क्या थी? राजीव गांधी ने दोनों पद अपने पास रखे। अब जबकि सोनिया गांधी दोनों पद अपने पास रख सकती थीं, उन्होंने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री पद मनमोहन सिंह को दे दिया।
यहां मूल प्रश्न यही है कि प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा या शक्तियों का कांग्रेस अध्यक्ष ने कब और कहां अतिक्रमण किया? इसके विपरीत ऐसे कई उदाहरण हैं, जब प्रधानमंत्री ने कई फैसले अपनी मर्जी से किए, जिन पर पार्टी की सहमति नहीं थी। भारत-अमेरिकी परमाणु सौदा इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। इसके अलावा सोनिया की राष्ट्रीय सलाहकार समिति (जिसे 'सुपर कैबिनेट' कहा जाता है) के कई फैसले सरकार ने या तो नहीं माने, या ताक पर रख दिए, या अधूरे ही माने। जैसे 'मनरेगा' का मूल दस्तावेज, खाद्य-सुरक्षा विधेयक, अल्पसंख्यक-सुरक्षा विधेयक इत्यादि। फिर भी सरकार और पार्टी के बीच असाधारण सहयोग और समझके वातावरण का सारा देश साक्षी है। सोनिया ने आज तक अपने व्यवहार से कभी दूर-दूर तक यह संकेत नहीं छोड़ा कि वे बड़ी हैं और मनमोहन सिंह छोटे हैं। इसलिए यह मानना कि पार्टी सरकार की छाती पर सवार है, तथ्यात्मक नहीं लगता।
तो फिर समस्या क्या है? समस्या यह है कि न तो कांग्रेस अध्यक्ष राजनीतिक हैं और न ही प्रधानमंत्री! उनके भाग्य से छींका टूट पड़ा और वे वहां पहुंच गए, जहां आज हैं। कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीति के प्रति विकर्षण जगविख्यात है। वरना वे राजीव को प्रधानमंत्री बनने से विमुख क्यों करतीं? इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि वे स्वयं प्रधानमंत्री नहीं बनीं? उनके सलाहकार भी कोई द्वारिकाप्रसाद मिश्र और डी.पी. धर जैसे लोग नहीं हैं। वे पाक-साफ और सज्जन हैं, लेकिन मैदानी राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं है। स्वयं सोनिया गांधी में इतनी कूवत नहीं कि भारत जैसे विशाल राष्ट्र की पेचीदा समस्याओं को समझ सकें और मान लें कि कोई उनको समझा भी दे तो वे इंदिरा गांधी की तरह मैदान में कूद पड़ें। इसीलिए किंकर्तव्यविमूढ़ता ने कांग्रेस पार्टी पर घेरा डाल दिया है।
जहां तक मनमोहन सिंहजी का सवाल है, उनका व्यक्तित्व उच्च मानवीय गुणों का परिपुंज है। उनकी ईमानदारी दुर्लभ है, लेकिन ऐसी ईमानदारी का कोई क्या करे, जो दुनियाभर की बेईमानी की ढाल बन गई है। कितने दुख की बात है कि इतने सज्जन और ईमानदार प्रधानमंत्री की सरकार देश की सबसे भ्रष्ट और बेईमान सरकार की तरह जानी जाएगी। यदि प्रधानमंत्री 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल घोटाले के गुनहगारों को पकड़कर जेल में डाल देते और उनसे सारा माल उगलवा लेते तो क्या कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस अध्यक्ष उनका विरोध करतीं? बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों से निपटने में सरकार जरा भी राजनीतिक परिपक्वता दिखाती तो क्या सोनिया गांधी उसे रोक देतीं? यह सरकार 'मनरेगा' के तहत 100 रुपए रोज का 'बेगारी भत्ता' तो दे सकती है लेकिन अरबों-खरबों का काला धन वापस लाने में आना-कानी कर रही है। कहते हैं कि ईमानदार आदमी ही साहसी हो सकता है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री कैसे ईमानदार हैं कि उनमें साहस की एक किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। आज भी वे अगर साहस से काम लें तो हारी हुई बाजी जीत सकते हैं। उनके मार्ग में न कांग्रेस अध्यक्ष कोई बाधा हैं, न कांग्रेस पार्टी कोई अड़ंगा है।
सोनिया गांधी
वर्ष १९९८ में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं।
सितंबर २०१० में उन्हें लगातार चौथी बार पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुना गया।
साहस दिखाएं प्रधानमंत्री
कहते हैं ईमानदार आदमी ही साहसी हो सकता है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री कैसे ईमानदार हैं कि उनमें साहस की एक किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। आज भी वे साहस से काम लें तो हारी बाजी जीत सकते हैं।
वेदप्रताप वैदिक

लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं।
समस्या यह है कि न तो कांग्रेस अध्यक्ष राजनीतिक हैं और न ही प्रधानमंत्री। कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीति के प्रति विकर्षण जगविख्यात है। वरना वे राजीव को प्रधानमंत्री बनने से विमुख क्यों करतीं?
केंद्र सरकार को लकवा क्यों मार गया है? जो सरकार अपने पहले पांच वर्षों में एक के बाद एक सफलता के नए प्रतिमान कायम कर रही थी, उसे उसकी दूसरी पाली में क्या हो गया है? वह जड़-भरत क्यों बन गई है? प्रणब मुखर्जी की प्रचंड विजय दिल बहलाने के लिए अच्छी खबर है, लेकिन कांग्रेस अब कितनी लोकप्रिय रह गई है, इसे कांग्रेसियों से ज्यादा कौन जानता है? पांच राज्यों में हुए पिछले चुनाव और आंध्र के नतीजे कौन-सा संदेश दे रहे हैं? इन चुनावों ने कांग्रेस के कुलदीपक को भी लगभग बुझा दिया है। अब तो कांग्रेस के पास तुरूप का एक ही पत्ता रह गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांग लिया जाए और उनकी जगह किसी नए नेता को प्रधानमंत्री पद पर बिठा दिया जाए। यदि इस पद पर राहुल गांधी बैठ जाएं तो क्या वे सरकार में जान फूंक सकते हैं? यदि फूंकदें तो सचमुच चमत्कार हो जाए, लेकिन पहला प्रश्न यह है कि वे अभी तक किसी भी सरकारी जिम्मेदारी से बचते क्यों रहे? क्या उनके मन में यह गणित रहा कि वे तो इस दुकान के भावी मालिक हैं? वे किसी के मातहत क्यों रहें? यदि वे बनते तो क्या बनते? राज्यमंत्री या मंत्री बनते? ज्योतिरादित्य सिंधिया या जयराम रमेश की तरह। उन्हें प्रधानमंत्री की सरपरस्ती स्वीकार करनी ही पड़ती! क्या युवराज के लिए यह हतक नहीं होती? ये बात दूसरी है कि मनमोहन सिंहजी ऐसे विलक्षण प्रधानमंत्री हैं कि वे अपनी कुर्सी से दो इंच ऊपर ही बैठते हैं। कुर्सी का गुरूर उन्हें रत्तीभर भी नहीं है। वे किसी का अपमान नहीं कर सकते। इस तथ्य के बावजूद यदि राहुल मंत्री नहीं बने तो क्या यह माना जाए कि वे अपनी योग्यता को कसौटी पर चढ़ाने से अब तक डरते रहे? यदि ऐसा है तो उनकी योग्यता दूसरे ढंग से कसौटी पर चढ़ गई है। बिहार और यूपी के चुनावों ने राहुल गांधी को पूरी तरह से नाप दिया है। कांग्रेस महासचिव और कांग्रेस के सर्वप्रमुख प्रचारक नेता के तौर पर देश ने उनका जितना मूल्यांकन किया, उतना कठोर मूल्यांकन वह उनके मंत्री-पद का नहीं करती। यदि वे मंत्री होते तो 60-70 में से एक होते, लेकिन अभी तो वे राहुल गांधी थे और राहुल गांधी देश में बस एक ही हैं। ऐसे में मनमोहन सिंह को उखाड़कर राहुल को रोपना कौन-सा गुल खिलाएगा, मैं नहीं जानता। डॉ. मनमोहन सिंह का शिष्ट और अनाक्रामक व्यक्तित्व इतनी सहानुभूति पैदा करेगा कि उनकी सरकार का लकवाग्रस्त होना भी देश की आंखों से ओझल हो जाएगा।
इसका मतलब यह नहीं है कि इस सरकार की दुरवस्था के लिए मनमोहन सिंह दोषी नहीं हैं। कुछ विश्लेषकों ने सारा दोष सोनिया गांधी के मत्थे मढ़ दिया है। उनका तर्क है कि शक्ति का असली केंद्र पार्टी में है, सरकार तो उसकी कठपुतली भर है। जैसा कभी सोवियत व्यवस्था में होता था, आजकल भारत में हो रहा है। भारत में संसदीय व्यवस्था लचर-पचर है। संसदीय पार्टी के मुकाबले कांग्रेस की कार्यसमिति अधिक ताकतवर है और प्रधानमंत्री के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष शक्ति की असली केंद्र्र हैं। ऊपरी तौर पर यह बात सही लगती है, लेकिन वास्तविकता क्या है? प्रधानमंत्री का पद और कांग्रेस अध्यक्ष का पद कई वर्षों बाद दो अलग-अलग व्यक्तियों के पास आया है। नरसिंह राव जैसे गैर-पुश्तैनी कांग्रेस अध्यक्ष ने भी प्रधानमंत्री बनने पर भी अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ा। इंदिरा गांधी के जमाने में कई कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन उनकी हैसियत क्या थी? राजीव गांधी ने दोनों पद अपने पास रखे। अब जबकि सोनिया गांधी दोनों पद अपने पास रख सकती थीं, उन्होंने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री पद मनमोहन सिंह को दे दिया।
यहां मूल प्रश्न यही है कि प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा या शक्तियों का कांग्रेस अध्यक्ष ने कब और कहां अतिक्रमण किया? इसके विपरीत ऐसे कई उदाहरण हैं, जब प्रधानमंत्री ने कई फैसले अपनी मर्जी से किए, जिन पर पार्टी की सहमति नहीं थी। भारत-अमेरिकी परमाणु सौदा इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। इसके अलावा सोनिया की राष्ट्रीय सलाहकार समिति (जिसे 'सुपर कैबिनेट' कहा जाता है) के कई फैसले सरकार ने या तो नहीं माने, या ताक पर रख दिए, या अधूरे ही माने। जैसे 'मनरेगा' का मूल दस्तावेज, खाद्य-सुरक्षा विधेयक, अल्पसंख्यक-सुरक्षा विधेयक इत्यादि। फिर भी सरकार और पार्टी के बीच असाधारण सहयोग और समझके वातावरण का सारा देश साक्षी है। सोनिया ने आज तक अपने व्यवहार से कभी दूर-दूर तक यह संकेत नहीं छोड़ा कि वे बड़ी हैं और मनमोहन सिंह छोटे हैं। इसलिए यह मानना कि पार्टी सरकार की छाती पर सवार है, तथ्यात्मक नहीं लगता।
तो फिर समस्या क्या है? समस्या यह है कि न तो कांग्रेस अध्यक्ष राजनीतिक हैं और न ही प्रधानमंत्री! उनके भाग्य से छींका टूट पड़ा और वे वहां पहुंच गए, जहां आज हैं। कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीति के प्रति विकर्षण जगविख्यात है। वरना वे राजीव को प्रधानमंत्री बनने से विमुख क्यों करतीं? इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि वे स्वयं प्रधानमंत्री नहीं बनीं? उनके सलाहकार भी कोई द्वारिकाप्रसाद मिश्र और डी.पी. धर जैसे लोग नहीं हैं। वे पाक-साफ और सज्जन हैं, लेकिन मैदानी राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं है। स्वयं सोनिया गांधी में इतनी कूवत नहीं कि भारत जैसे विशाल राष्ट्र की पेचीदा समस्याओं को समझ सकें और मान लें कि कोई उनको समझा भी दे तो वे इंदिरा गांधी की तरह मैदान में कूद पड़ें। इसीलिए किंकर्तव्यविमूढ़ता ने कांग्रेस पार्टी पर घेरा डाल दिया है।
जहां तक मनमोहन सिंहजी का सवाल है, उनका व्यक्तित्व उच्च मानवीय गुणों का परिपुंज है। उनकी ईमानदारी दुर्लभ है, लेकिन ऐसी ईमानदारी का कोई क्या करे, जो दुनियाभर की बेईमानी की ढाल बन गई है। कितने दुख की बात है कि इतने सज्जन और ईमानदार प्रधानमंत्री की सरकार देश की सबसे भ्रष्ट और बेईमान सरकार की तरह जानी जाएगी। यदि प्रधानमंत्री 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल घोटाले के गुनहगारों को पकड़कर जेल में डाल देते और उनसे सारा माल उगलवा लेते तो क्या कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस अध्यक्ष उनका विरोध करतीं? बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों से निपटने में सरकार जरा भी राजनीतिक परिपक्वता दिखाती तो क्या सोनिया गांधी उसे रोक देतीं? यह सरकार 'मनरेगा' के तहत 100 रुपए रोज का 'बेगारी भत्ता' तो दे सकती है लेकिन अरबों-खरबों का काला धन वापस लाने में आना-कानी कर रही है। कहते हैं कि ईमानदार आदमी ही साहसी हो सकता है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री कैसे ईमानदार हैं कि उनमें साहस की एक किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। आज भी वे अगर साहस से काम लें तो हारी हुई बाजी जीत सकते हैं। उनके मार्ग में न कांग्रेस अध्यक्ष कोई बाधा हैं, न कांग्रेस पार्टी कोई अड़ंगा है।
सोनिया गांधी
वर्ष १९९८ में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं।
सितंबर २०१० में उन्हें लगातार चौथी बार पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुना गया।
साहस दिखाएं प्रधानमंत्री
कहते हैं ईमानदार आदमी ही साहसी हो सकता है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री कैसे ईमानदार हैं कि उनमें साहस की एक किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। आज भी वे साहस से काम लें तो हारी बाजी जीत सकते हैं।
वेदप्रताप वैदिक

लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं।
समस्या यह है कि न तो कांग्रेस अध्यक्ष राजनीतिक हैं और न ही प्रधानमंत्री। कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीति के प्रति विकर्षण जगविख्यात है। वरना वे राजीव को प्रधानमंत्री बनने से विमुख क्यों करतीं?
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